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एक बार फिर से खेल का बाज़ार जोर शोर से शुरू हो चुका है. खेल के इस बाज़ार में बाज़ार का खेल बहुत दिलचस्प भी है और आम आदमी की समझ से बाहर भी है. डॉलर में लगने वाली कीमते और कीमतों के पीछे का अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र बड़ा ही जटिल लगता है. कुछ वैसे ही जैसे शेयर बाज़ार के विद्वान् पंडितो का गणित; कब कौन आसमान छूने लगे और कौन पाताल में चला जाये.
बेचारा दिमाग ये समझने को तैयार ही नहीं होता की चोटिल, फार्म से बाहर खिलाडी कैसे एकदम से चुस्त दुरुस्त हो जाते हैं. शायद डॉलर की ताकत होगी, आखिर ताकतवर देश की मुद्रा है.
बहुत से क्रिकेट प्रेमियों को कोई शिकायत नहीं है आई पी एल से, बल्कि उनके लिए ये विशुद्ध क्रिकेट है. जहा सब कुछ बेहतरीन देखने को मिलता है. हो सकता है, पर क्या करें, दकियानूसी सोच दिमाग से निकलती ही नहीं. हमने क्रिकेट को देश प्रेम से जोड़ रखा है ना. बेचारा दिमाग समझ ही नहीं पाता की भाई कौन किस टीम से और किसके लिए खेल रहा है. अब विद्वान् बड़े लोगो को तो पूछ नहीं सकते ना की ये टीम के नाम प्रदेशो के नाम पर क्यों रखे गये. अब धोनी का चेन्नई से क्या लेना-देना है और शेन वार्न राजस्थान को क्यों पसंद हैं. बेचारे यू पी, और बिहार की कोई टीम क्यों नहीं है. ये सब मूर्खतापूर्ण प्रश्न हैं. आखिरकार हमे क्रिकेट से मतलब होना चाहिए. फिर चाहे कोई किसी के भी साथ खेले, हमारा काम है तालियाँ बजाना.
एक दिन एक आम आदमी पूछ रहा था की भाई ये क्रिकेट और सिनेमा में इतना पैसा क्यों है और बेचारा किसान जो सबसे जरुरी काम करता है उसे आत्महत्या क्यों करनी पड़ती है. मुर्ख इतना भी नहीं समझता की ये बाज़ार का युग है. किसान बाज़ार तक पहुँच नहीं पाता, पहुँचता है तो बाज़ार के नीचे दब जाता है. इस युग में वही सफल होता है जो बिकता है, जिसकी मार्केटिंग होती है. खुद को आगे ले जाने के लिए खुद की मार्केटिंग करनी पड़ती है तो फिर क्रिकेट कैसे पीछे रह सकता है, एक ही तो खेल है जो भारतीयों की नस में बसा है.
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