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जाने कैसे दिन हैं ये, जाने कैसा जीवन है…!

मैनेजर की कलम से..
मैनेजर की कलम से..
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बीते दिनों पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए कुछ बातें की थी की सालों से कुछ भी बदला नहीं है, बल्कि बुरा हुआ है………….फिर वो चाहे आतंकवाद हो, जातिवाद हो, क्षेत्रवाद हो या सबसे बड़ी समस्या और बहुत सी समस्याओं की जड़ ….भ्रष्टाचार हो …..!

जो बदला है वो यह की निश्चित रूप से जनता पहले से कहीं अधिक जागरूक हुई है, विज्ञान में पहले से कही अधिक प्रगति हुई है, घर बैठे एक क्लिक पर बहुत कुछ सुलभ है……पर इसके साथ ही बदली है हमारी दिनचर्या, बदला है बच्चों का बचपन, बदले हैं रिश्ते-नाते और बदला है जीवन के प्रति दृष्टिकोण…! कभी कभी तो लगता है की जो कुछ बदलना सबसे जरुरी था, बस वही नहीं बदला…!

पहले देखा करता था लोग सुबह उठ कर खुली हवा में टहला करते थे…..आज घर में मशीन के ऊपर भागते रहते हैं…..किसी के पास समय नहीं है तो किसी के पास जगह नहीं है और कहीं अगर दोनों है तो वहां भोर के सन्नाटे में लुटेरों का भय है…! और तो छोड़िये जनाब आजकल हँसने का भी समय नहीं है हमारे पास न ही कोई हँसाने वाला……… इसे भी एक काम की तरह करना पड़ता है हमे…….कल सुबह सुरिंदर चाचा जल्दी में मिले, हमने पूछा, “चाचा जी टहलने जा रहे हो क्या?” ……..बोले, “नहीं, हँसने जा रहा हूँ बेटा…लाफिंग क्लब में”……………कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम……..न हँसने का समय है न हँसाने का……..सात समंदर पार दोस्त की खबर है……पडोसी का नाम भी नहीं पता……… खुद के दुःख से ज्यादा दूसरों के सुख से दुखी हैं हम……..कहीं बच्चों का बचपन दब गया है तो कहीं अपनेपन की खुशबू चली गई है…… शाम की चौपाल की जगह सोशल नेटवर्किंग, दादी-नानी की कहानी की जगह कार्टून नेटवर्क और लूडो, आइस-पाइस, गिल्ली-डंडा की जगह वीडियो गेम्स ने ले ली है………कितना कुछ तो बदला है……..खान-पान की आदतें बदली हैं और उनके साथ बदला है स्वास्थ्य का स्तर……..साठ की उम्र में होने वाले रोग अब तीस की उम्र में हो रहें हैं…….जो उम्र खाने-पीने, घूमने, जिंदगी जीने की होती है उसमे हम कभी पैसे के पीछे भागते हैं तो कभी डॉक्टर के………पहले पैसे के लिए स्वास्थ्य खर्च कर देते हैं और फिर स्वास्थ्य पाने के लिए पैसे……पर ना तो खोया हुआ स्वास्थ्य वापस मिल पाता है ना खोया हुआ अपनापन.. और दिल कहता है….

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जाने कैसे दिन हैं ये, जाने कैसा जीवन है

सब भाग रहे हैं, भीड़ बहुत है,

फिर भी ये एक अकेला मन है

छूट गये वो रिश्ते-नाते और खेल पुराना बचपन का

बस याद रहे कागज़ के टुकड़े,

सब भूले मतलब जीवन का

देर नहीं हुई, अब भी जागो,

हँसों-हँसाओ दुनिया को

यूँ ही किसी के काम आओ

कभी तो प्रकृति में दिल लगाओ

साथ रहो सच्चाई के और,

जियो जी भर के जीवन को…

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अभिनव श्रीवास्तव (०७.०५.२०१२)

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